Saturday 30 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "गौरव त्रिपाठी "

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "गौरव त्रिपाठी "

                                                    ---- "गौरव त्रिपाठी"----

कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "

‘मेरे मंदिर के लिए जब तुम थे रथ पर चढ़ रहे देश के एक कोने में थे कश्मीरी पंडित मर रहे।
फिर मेरी ही सौगंध खाकर काम ऐसा कर गए, मेरे लिए दंगे हुए मेरे ही बच्चे मर गए।’

गौरव त्रिपाठी कि  कलम से छाप  छोड़ती  ये पंक्तियाँ  आज अयोध्या का ही नहीं  समूचे भारत का आईना है | ग़ौरव  त्रिपाठी ने ये पंक्तियाँ तब लिखी जब देश में  बढ़ती हिंसक घटनाओं  ने उन्हें सोचने पर मज़बूर  कर दिया |

https://www.youtube.com/watch?v=uoX5kvTSwn4



देश में बढ़ रही हिंसक घटनाओं के बीच एक वीडियो आया है। वीडियो में  "गौरव त्रिपाठी" भारतीय इतिहास के विवादत मुद्दे राम मंदिर का जिक्र कर रहे  है। वीडियो का टाइटल है ‘श्री राम जी अदालत में।’ वीडियो में "गौरव त्रिपाठी" कहते  है कि अदालत में श्री राम को बुलाया जाता है और फिर वह अपनी तरफ से दलील देने लगते हैं। वीडियो में गौरव त्रिपाठी बताते है कि श्री राम को पहले इस बात पर गुस्सा आता है कि अल्लाह को समन जाने के बावजूद वहां नहीं आए। लेकिन फिर वह दोनों (हिंदू-मुसलमान) की तरफ से बोलने लगते हैं। वीडियो में वो यह भी जिक्र करते  है कि अदालत में श्री राम कहते हैं कि जब वह आज की परिस्थिति को देखते हैं तो उनको लगता है कि त्रेता युग में अवतार लेना बेकार रहा।  श्री राम के माध्यम से गौरव बताते हैं कि श्री राम ने  केवट और सबरी के जरिए भेदभाव को तोड़ा था और लोगों को समझाने के लिए उन्होंने सीता तक को छोड़ दिया था|

गौरव त्रिपाठी भाषा से धनि है और विचारों  को शब्दों में पिरोनी वाली कला को भली भाँती समझते है |श्री राम जी अदालत में’,कम्बलवाले भाई ,सेकंड हैंड जिंदिगी ,इट्स  आल मेन्टल ,आदि ये सभी उनकी शब्दकला और प्रस्तुति के जीते जागते उदहारण है |  गौरव त्रिपाठी न ही एक अच्छे लेख़क  है बल्कि उसके साथ एक बहुत ही अच्छे श्रोता और उम्दा पाठक भी हैं | कवियों के जीवन को पढ़ना , उनकी लिखी पंक्तियों की गहराई में उतरना व उनके विचारो की नीभ पर स्थिर खड़े रहना  ये सब उन्हें भली भाँती आता है|

समय के साथ शब्दों को हेर फेर करने का तरीका भी बदल चुका  है | श्रोताओं को कुछ हद तक ही शब्दकोष का ज्ञान है | भाषा उस बहती  हुई नदी की धारा  की तरह हो गयी है जिसे कभी गति भी थामनी पड़ती है कभी मुड़ना भी पड़ता है | इस बात को "गौरव त्रिपाठी " भली भाँती समझते है | इसका सीधा उदहारण इन त्रिपाठी जी की इन पंक्तियों में है :-

‘खैर अब भी है समय तुम भूल अपनी पाट दो, जन्मभूमि पर घर बनाओ और बेघरों में बांट दो। ऐसा करना हूं मैं कहता परम-पूज्य का काज है, न्याय-अहिंसा यही तो राम राज्य है।’

एक पैमाने पर पियूष मिश्रा जी और गौरव त्रिपाठी जी के लिखने व प्रस्तुति का तरीका हो सकता है कुछ हद तक भिन्न भिन्न हो किन्तु शब्दों  को रूचि में  ढालना और माध्यम  के बीच रखकर अपने विचारो को परोसने के तरीके में कुछ ज़्यादा  भिन्न्नता नहीं है| ग़ौरव  त्रिपाठी की अधिकतर कविताओं में  एक सरलता ,सहजता और गंभीरता नज़र आती है शायद ये उनके निजी जीवन से है चूँकि  वे एक एक्स  आर्मी अफसर भी रहे है तो किसी भी विषय में गंभीरता स्वाभाभिक है | उनकी कविताओं ,कहानियों को समझने के लिए अनुवाद या भावार्थ की जरूरत नहीं पड़ती है |



देश की सरहदों से प्रेम का जोड़ उनकी इस कविता में बखूबी नज़र आता है | कश्मीर जो की सुंदरता की मशाल है उसको शब्दों के लपेटकर गौरव जी ने बड़े ही सरलता से उसका हाल व्यक्त किया है | गौरव त्रिपाठी अपनी जिंदिगी में शब्दों के साथ यहाँ ही नहीं रुकते उनका सफर अनेक मुद्दों के साथ चल ही रहा है अब उनके शब्दों की आग और शोले बन  चुकी है और कविताओं के खामोश सफर में आने वाले वक़्त में उनके शब्द इस देश के जवान होंगे जो बंदूकों के साथ सोए  हुए कानों  में धमाके करेंगे कि  ए  राजनीती करने वालों संभल जाओ ,सुधर जाओ तुम्हारा अकाल मृत्यु निश्चित है | 

२१ वी  सदी को अब गौरव त्रिपाठी,पियूष मिश्रा जैसे कवियों की ही जरूरत है और आने वाले समय में कटघरे से जैसे अब श्री राम को निकलना पड़ेगा ,अल्लाह को जमीं  पे उतरना पड़ेगा और अब शब्दों के तीर से एक परचम फैलाना पड़ेगा कि  "न मैं अल्लाह न ये राम ,न मैं  मस्ज़िद  न मंदिर का विश्राम , हूँ तो बस  तेरे अंदर बैठा एक नाम ,और तू है इंसा आ इंसान के काम ,,"


Sunday 24 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "मैं "

                                                    ---- " मैं "----

कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "


वो "मैं " मैं  नहीं वो हर एक लेख़क  है जो मन के संचार को काग़ज़  पर अपने शब्दों से पिरोता है | वैसे तो हम अपने  आस पास कई लेखकों से मिलते है या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हम कई चिंतन करने वाले चेहरों से मिलते है | यही सब गुमनाम चेहरे और अनजान नाम कभी कवि  कहलाते है तो कभी उनके अलग अलग पर्यायवाची शब्दों से तोले  जाते है | समय के गुज़रते पहिये के साथ साथ हिंदी का रूप ,कविता का परिचय और कवि  का पहनावा तीनों  ही बदल चुके हैं |

यह समय ही है जो सोचने का ढंग , लिखने का तरीक़ा  और लोगो को समझाने के विषय से लेकर हर एक कोने में अपना प्रभाव डालता है | कविताओं की दुनिया में जितना "मैं " मैं  को समझता हूँ उस हिसाब से आज कल उर्दू और हिंदी न ही सगी बहनें है और न ही मौसी-खाला | हो सकता एक वो समय रहा हो जब लेखकों को दोनों भाषाओँ की अच्छी तरह से समझ हो और उन्होंने दोनों का एक पैमाने में इस्तेमाल भी किया हो |

आज का युग नवयुग है जहाँ शायद एक भाषा की समझ भी लोगो को नहीं है | इस युग को महा लेख़क  श्री पियूष मिश्रा जी ने अपनी एक कविता में बड़े आसान से शब्दों में समझाया है  जहाँ वो कहते है  की आज के युग की आज़ादी "अपनी आज़ादी तो भैया लौंडिया के दिल में है " | यहाँ उनके इस पंक्तियों से मैं बिलकुल सहमत हूँ |  आज की पीढ़ी जिसे खुद के नाम का अर्थ नहीं पता ,आज के लेख़क  जो चार चार पक्तियॉँ  उन्ही ग़ालिब मिर्ज़ा से चुरा कर रख देते है और वाह वाही लूटने की होड में खड़े हो जाते है वो धोखे से लेख़क  कहलाते है जिन्हे खुद लेखक होने पर शक होता है |

महांकावी केदारनाथ अग्रवाल ,गोपाल सिंह 'नेपाली ', शमशेर बहादुर सिंह ,शर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,अमृता प्रीतम ,हरिवंशराय बच्चन , निराला जी ,जॉन एलीआ ,मैथिलीशरण गुप्त ,इत्यादि इनकी कविताओं में एक अलग चमक थी | इनके श्रोताओं  में एक अलग गूंज थी और ये गूँज  उस कविता के सार पर अमल करने की थी |

आज कल जो "मैं " है उसको समय समय पर भ्रमित होना ही पड़ता है | चार दीवार में एक यंत्र से कुछ २०० कानो  तक यह समझाने की कोशिश होती है कि  आप अगर कुछ परिवर्तन लाना चाहते है तो कलम का त्याग कर दे | दिम्माग कुछ सोच पाता  या समझने की उस विचारधारा पर अमल कर पाता  उसके पहले एक अलग पहलु में बात होनी ही थी " आज हिंदी दिवस में विभाग में इतना सन्नाटा क्यों ?" इससे इशारा मेरा किसी एक चेहरे या एक विभाग पर नहीं है | वो जो " मैं " है वो ये जानना चाहता है  की कुछ विशेष दिनों पर उनकी याद या उन पर अमल करना क्यों होता है ?

एक सभा में लेखकों को एकत्रित करना की वो समाज सुधारक सोच पर अपनी रचनाओं से लोगो को जागरूक करे ये सब "मै" के साथ उसके आस  पास हो रहा था | यही आज के कवियों ,लेखकों का दुर्भाग्य है की एक ही चेहरे के कई रूप देखने को मिल जाते है | वहाँ यह जान पाना थोड़ा मुश्किल होता है की इनके  शब्दों में तथ्य है भी या सिर्फ छलावा  और मिथ्या से बुना  हुआ कोई सफर हैं |    

कटाक्ष को कविधारा में प्रवाह करना शायद उतना कठिन सफर नहीं जो आपके आस पास हो रहा है उसे कुछ समय में सही ढंग से पहचान पाना | "मैं " में जितने आज के उभरते रचनाकार है  या लेखक है वहाँ  सच्चाई क्या है या तात्पर्य क्या है  ये जान पाना थोड़ा ज़्यादा  ही दिशाहीन होने जैसे हैं |

कहा  गया है " डूबते को तिनके का सहारा ही काफी होता है " लेकिन अगर वो तिनका ज्ञान का इतना भारी भण्डार हो जो खुद आधा डूब  चुका  हो या इतना हल्का हो जिसको आप पकड़े  और वो डूबने लग जाए तोह उस सहारे का सहारा लेना "मैं" को बेसहारा कर देने जैसा कुछ होगा |

आज की कविताओं में "मैं " भटका हुआ है जो खुद को ढूंढ़ने की हर सुबह कोशिश करता है | आज की लेखनी में "मैं " खोया हुआ है जो शाम को घर का रास्ता भूल जाता है|
वो आज जो भटका खोया नहीं वो कवि  या लेख़क  होने के मूल सिद्धांतों पर ही नहीं है | खोना -भटकना और भटकते रहना यही दिशा मे आज का कवि सोचता हैं  लेकिन उसकी सोच पर अमल करने वाले वो श्रोता आज पूरी तरह खिड़कियों पर बैठे कानो में ध्वनि यन्त्र लगाए कही और ही नज़र आते है |




Saturday 23 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- " हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन""

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- " हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन""



                                               ---" हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन""---
 कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ !!

****************************************

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ !!

****************************************

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ !!

इन कविताओं की पंक्तियों को कोई और लिख भी नहीं सकता है | एक ही नाम ,एक ही कलम ,एक ही सोच रखने वाले वो महान इंसान जिसने कविताओं से रचना की परिभाषा ही बदल दी | जिस प्रकार जल की निर्मलता ,अग्नि का तेज़ ,वायु की तीव्रता इत्याति सबके अपने भिन्न भिन्न गुण  होते है ठीक इसके विपरीत वो अनंत तक जाने वाली सोच जिसे अग्नि में निर्मलता और जल में तेज़ नज़र आता है वो महान कवि स्वर्गवासी हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" जी ही हो सकते थे |

हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी २००३) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे।'हालावाद' के प्रवर्तक बच्चन जी हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। भारतीय फिल्म उद्योग के प्रख्यात अभिनेता अमिताभ बच्चन उनके सुपुत्र हैं।

उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है।

बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबूपट्टी में एक कायस्थ परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था।

इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा' या 'संतान' होता है। बाद में ये इसी नाम से मशहूर हुए। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की

१९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय १४ वर्ष की थीं। लेकिन १९३६ में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु हो गई। पांच साल बाद १९४१ में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसे कविताओं की रचना की। तेजी बच्चन से अमिताभ तथा अजिताभ दो पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। तेजी बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा शेक्सपियर के अनूदित कई नाटकों में अभिनय का काम किया है।


उनकी कृति दो चट्टाने को १९६८ में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

हरिवंश राय बच्चन पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। इनमें उनपर हुए शोध, परिचय, आलोचना एवं रचनावली शामिल हैं।

बच्चन रचनावली के नौ खण्ड जो १९८३ में प्रकाशित हुई थी  | हरिवंशराय बच्चन के मुख्य जीवन का  आगाज़ उनकी कविता "मधुशाला" से हुई जहाँ उन्होंने कविताओं को एक माला के रूप में पिरोया है और जिसे अनगिनित लोगो ने सराहा है |

हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" के चाहने  वालों की कमी नहीं है आज के समय में भी एक महफ़िल ऐसी नहीं जाती  जहाँ हरिवंश राय जी को याद न किया जाता हो उनकी कविताओं के बोल आज भी अमर है | हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" की कलम को आवाज़ उनके पुत्र फिल्म जगह के महानायक " अमिताभ बच्चन " ने दी है | जब कभी उन्हें अवसर मिलता है वे अपने स्वर्गवासी पिता की स्मृति में उनकी लिखी हुई पंक्तियाँ अवश्य कहते है | उनकी कविता प्रेरणा देने वाली होती है |

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,वह उठी आँधी कि नभ मेंछा गया सहसा अँधेरा,धूलि धूसर बादलों नेभूमि को इस भाँति घेरा,रात-सा दिन हो गया, फिररात आ‌ई और काली,लग रहा था अब न होगाइस निशा का फिर सवेरा,रात के उत्पात-भय सेभीत जन-जन, भीत कण-कणकिंतु प्राची से उषा कीमोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

जैसी अनेक कविताएँ है जिसकी गूंज आज भी नई  सी है और इन सभी के साथ आज भी उन पंक्तियों में वही उमंग है | उनके पाठक आज भी उन कविताओं को पड़के खुद को हरिवंशराय बच्चन के बहुत निकट पाते है | उनकी पंक्तियाँ जीवित कर देती है आत्मा का खुद के जीवन से मिलना श्री हरिवंशराय बच्चन जी की कविताओं से सा हो जाता है
कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "केदारनाथ अग्रवाल"

                                                    ---- "केदारनाथ अग्रवाल"----

कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "





१ अप्रैल १९११ को उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के कमासिन गाँव में जन्मे केदारनाथ का इलाहाबाद से गहरा रिश्ता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने कविताएँ लिखने की शुरुआत की। उनकी लेखनी में प्रयाग की प्रेरणा का बड़ा योगदान रहा है। प्रयाग के साहित्यिक परिवेश से उनके गहरे रिश्ते का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी सभी मुख्य कृतियाँ इलाहाबाद के परिमल प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई।

प्रकाशक शिवकुमार सहाय उन्हें पितातुल्य मानते थे और 'बाबूजी' कहते थे। लेखक और प्रकाशक में ऐसा गहरा संबंध ज़ल्दी देखने को नहीं मिलता। यही कारण रहा कि केदारनाथ ने दिल्ली के प्रकाशकों का प्रलोभन ठुकरा कर परिमल से ही अपनी कृतियाँ प्रकाशित करवाईं। उनका पहला कविता संग्रह फूल नहीं रंग बोलते हैं परिमल से ही प्रकाशित हुआ था। जब तक शिवकुमार जीवित थे, वह प्रत्येक जयंती को उनके निवास स्थान पर गोष्ठी और सम्मान समारोह का आयोजन करते थे।

केदारनाथ अग्रवाल ने अपने जीवन काल में कई रचनाएँ  की है और इनकी रचनाएँ  थोड़ी हटके है  जिसमे प्रकृति और नारी का सौंदर्य बहुत चित्रित है | केदारनाथ अग्रवाल अपने जीवन रस का छककर  पान करने वाले कवि  है | सुख, सौंदर्य ,श्रम ,ये सभी उनकी जीवन काव्य मूल्यों के ढाँचे के भिन्न भिन्न रूप है | निसंदेह इनका स्त्रोत समाजवादी विचारधारा है | यह सुख और सामाजिकता से अलग या उसका विरोधी नहीं | बस इसका अनुभव अलग है इसका अनुभव निजी है | यह अनुभव हर कोई नहीं कर सकता है | वह अनावश्यक से संजय से, निष्क्रियता से दुसरो का हक मार लेने से नहीं मिलता | सुख केदारनाथ अग्रवाल के लिए मानवता का स्वाद था ,अस्तित्व का रस था | उनका जीवन - आचरण और कविता भी उसी प्राप्ति के लिए अनुशासित  और अनुकूलित थी | प्रेम हो तो साधना भी सिद्धि का आनन्द  देती है | केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति और मनुष्य कों श्रम  -संस्कृति की दृष्टि और विचारधारा से चित्रित करते रहे है | उनके कविताओं में प्रकृति और मनुष्य का भण्डार है |


युग की गंगा, नींद के बादल, लोक और अलोक, आग का आइना, पंख और पतवार, अपूर्वा, बोले बोल अनमोल, आत्म गंध आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। उनकी कई कृतियाँ अंग्रेजी, रूसी और जर्मन भाषा में अनुवाद भी हो चुकी हैं। केदार शोधपीठ की ओर हर साल एक साहित्यकार को लेखनी के लिए 'केदार सम्मान' से सम्मानित किया जाता है।
इन सभी के अलावा उन्हें उनके जीवन में कई अन्य सम्मान  जैसे सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार आदि भी प्राप्त हुए हैं ।

केदारनाथ अग्रवाल बुंदेलखंड की प्रकृति , वहाँ  के जान जीवन ,लोकगान ,वहां की लय ,भाषा और तान से जुड़े हुए है जिनका प्रमाण उनकी रचनाओं में उभरकर खुद नज़र आता है | उनकी रचनाएँ  धर्मिता में  बुंदेलखंड अपनी समग्रता में बसा हुआ है | यह सारा रचाव -बसाव कवी और अभिव्यक्ति के हृदय में  है और रहेगा भी |

केदार जी जिंदिगी की सच्चाई की लड़ाई के कवी है | जिंदिगी की सच्चाई की लड़ाई में  विरोधी शक्तियों की मक्कार बर्बरता से संघर्ष करते कभी कभी निराशा और हताशा के भी छड़ों में निकल जाया करते  थे |

(मार्क्सवाद की रोशनी में केदारनाथ जी की कविता)

 दोषी हाथ
हाथ जो
चट्टान को
तोडे़ नहीं
वह टूट जाये,

लोहे को
मोड़े नहीं
सौ तार को
जोड़े नहीं
वह टूट जाये।



केदार जी की ऐसी कई कविताएँ  है जो सोचने पर पाठकों को विवश कर देती है और यही विवशता का दूसरा नाम कविता जगत में  केदारनाथ अग्रवाल है और साथ ही साथ केदार जी की कविता की विकास यात्रा ही , हिंदी की प्रकृतिशील कविता की विकास यात्रा का शंखनाद करती है |

Wednesday 20 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "अमृता प्रीतम "

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "अमृता प्रीतम "

                                             ---अमृता प्रीतम---
कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "


अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।

अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित।

१९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।

पंजाबी के शीर्षस्थ रजनाकार अमृता प्रीतम की कविताओं ने न केवल हिंदी बल्कि अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओँ के पाठकों के बीच पर्याप्त  लोकप्रियता अर्जित की है |
उनकी कविताओं में जीवन के छोटे छोटे अनुभवों को जितनी आत्मयीता  और लगाव के साथ ग्रहण किया गया है ,वह निश्चय ही उनके रचनाकार की महती उपलब्धि है | समुद्र के समान  हिलोरें  खाती विराट जिजीविषा ने अमृता प्रीतम की कविताओं को गहरे लौकिक सन्दर्भ प्रदान किये है | रंग बिरंगी प्रकृति और मानवीय भावनाओं  के रागात्मक टकराव से उद्भूत उनकी कल्पनाशक्ति को राजनात्मकता की नई ऊँचाइयाँ  हासिल की है | स्मृतियों के नीले आकाश में घुमड़ते बादल सी इन कविताओं में नारी की मुक्ति -आकांक्षाओं और उनकी संघर्ष की बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है |




अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब

हिंदी अनुवाद

आज मैं वारिस शाह से कहती हूँ, अपनी क़ब्र से बोल,
और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल,
पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी,
देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियाँ तुझे बुला रहीं हैं,
उठ! दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले! और अपना पंजाब देख,
खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं और चेनाब लहू से भरी बहती है

अमृता प्रीतम का प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह पंजाबी और हिंदी कवितों के बीच रचनात्मक संवाद का जीवंत वाहक सिद्ध होगा | इन पंक्तियों में अमृता प्रीतम वारिस शाह से बड़ी ही ख़ूबसूरती और नरम मिज़ाज़ से सन्देश दे रही है कि  हे वारिस शाह अपनी कब्र से तू बोल और कोई मोहोब्बत का नया पन्ना खोल पंजाब के पिंड की एक बेटी के अश्रुपूर्ण हो जाने पर तूने गाथा लिख डाली थी लेकिन देख आज तो पंजाब की लाखों बेटियां अश्क़ों में डूबी हुई है | पंजाब के खेतों  में लाशें बिछी हुई है |

अमृता प्रीतम का दर्द बयान करने का अंदाज़ भी स्थिर एक भावनात्मकता के साथ एक पगडण्डी पर धीरे धीरे बढ़ता हुआ नज़र आता है | प्रतीत होता है मानो वो कही स्थिर रूप से पंजाब के पिण्ड  में उस दर्द के साथ बंधी हुई है जहाँ  से निकल पाना अत्यधिक  कठिन है अपितु अमृता प्रीतम वही उन अश्क़ों को पोंछती हुई बैठ गई  है और उस जगह का हाल बयां  कर रही है उनकी कविता में भावना इस बात को दर्शाती है की उनकी कविताएं कितनी सच्ची है |

यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी'
ये पंक्तियां हैं अमृता प्रीतम की लिखी कविता सिगरेट की। जिन लोगों ने अमृता को पढ़ा है, जाना है वो ये बात बखूबी जानते हैं कि अमृता की ये कविता किस ओर इशारा करती है। दरअसल अमृता प्रीतम की ये कविता मशहूर शायर, गीतकार साहिर लुधयानवी से उनकी जुदाई का किस्सा है। ये उस कहानी का ब्योरा है जिसमें अमृता साहिर से मीलों दूर रह कर भी अपनी अंतिम सांस तक प्यार करती रहीं। ये प्यार आसमान और जमीन के मिलन की कहानी है जो शायद कभी संभव न हुआ लेकिन जब-जब स्याही से पेपर पर अमृता लिखा जा रहा होगा स्याही कागज के पन्ने पर फैल कर खुद ब खुद साहिर लिख देगी। अमृता प्रीतम के जीवन का जिक्र हो और इस जिक्र में इमरोज का जिक्र न हो यह एक बेहद ही बेमानी बात होगी लेकिन मेरे लिए ये हमेशा से ही साहिर और अमृता की कहानी रही।
कहानी शुरू होती है सीमा के उस पार के शहर लाहौर से जहां अमृता का जन्म आज से 98 साल पहले हुआ था। जहां उम्र की दहलीज में जवां होने का ठप्पा लगने के बाद अक्सर दोनों मिला करते थे। शायद दोनों प्रेम में थे। 'शायद' इसलिए क्योंकि वक्त बीतने के बाद जोड़े में नामों के हर्फ भी बदल गए। जिस अमृता के साथ साहिर का नाम लिया जाता था वो नाम बदलकर इमरोज हो गया। लेकिन इससे पहले की कहानी जानना ज्यादा जरूरी है वरना भटक सकते हैं और भटकना खतरनाक हो सकता है। दोनों के बीच के प्रेम को बेपनाह मोहब्बत का नाम दिया गया।
प्रेम में सिगरेट की लत...

अपनी जीवनी रशीदी टिकट में अमृता एक दौर का जिक्र करते हुए बताती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। लेकिन बाद मुद्दत बात यहीं खत्म नहीं होती। अमृता को लत थी, सिगरेट की नहीं साहिर की और साहिर का चले जाना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त। दरअसल जहां से प्रेम को परवान की जरूरत होती है वहां जुदाई को जगह नहीं मिलती।

अमृता के लिए साहिर से प्रेम इस कदर परवान चढ़ चुका था कि साहिर के जाने के बाद वो उनके पिए सिगरेट की बटों को जमा करती थीं और उन्हें एक के बाद एक अपने होठों से लगा कर वो साहिर को महसूस करती थीं। ये वो आदत थी जिसने अमृता को सिगरेट तक की लत लगा दी। अब वक्त करवट लेने वाला था साहिर को जाना था लेकिन सिगरेट ने जीवन में जगह बना ली थी।  इस तरह अमृता को सिगरेट पीने की लत लग गई जो आजीवन बरकरार रही।
एक वक्त के बाद साहिर मुंबई आ गए और अमृता पीछे छूट गईं लेकिन दोनों के दिल से एक दूसरे के लिए प्यार खत्म नहीं हुआ था।

 दोनों अक्सर खतों में एक दूसरे से मिला करते थे लेकिन खत कभी पूरे नहीं हुए हैं। साहिर और अमृता के प्रेम का एक और किस्सा बेहद ही मशहूर है जो साहिर के हिस्से से आती है। किस्सा है तो सुन लेना बेहतर शायद इनमें सच-झूठ से परे पीढ़ियों तक जाने का हुनर होता है।

वो चाय का कप...
एक बार की बात है साहिर से मिलने कोई कवि या मशहूर शायर आए हुए थे। उन्होंने देखा साहिर की टेबल पर एक कप रखा है जो गंदा पड़ गया है। उन्होंने साहिर से कहा कि आप ने ये क्यों रख रखा है? और इतना कहते हुए उन्होंने कप को उठा कर डस्टबीन में डालने के लिए हाथ बढाया कि तभी साहिर ने उन्हें तेज आवाज में चेताया कि ये अमृता की चाय पी हुई कप है इसे फेंकने की गलती न करें। लेकिन वो प्रेम सीगरेट की लत और चाय की कप तक ही सीमित रह गया, अभी जीवन में इमरोज का आना बाकी था। इमरोज! एक चित्रकार, जिसने प्रेम को नई परिभाषा दी। शायद यह काम भी एक कलाकार ही कर सकता था। जिसने हिन्दुस्तान को निःस्वार्थ प्रेम की परिकल्पना सिखाई लेकिन वो इश्क भी पूरा न हुआ।
इमरोज- एक छत...
हां एक बात हुई, दोनों ने दिल्ली में एक ही छत के नीचे जीवन काट दिया। इमरोज को अमृता ने छत कहा था लेकिन साहिर ने तो पूरा आसमान ही अपने नाम कर लिया था। अब आसमान के आगे छत की तुलना ये कैसा इंसाफ सो उस हिस्से का जिक्र इस कहानी में बेमानी होगी।

लेकिन एक किस्सा है जो न बताया जाए तो ये पूरा लिखा अधूरा ही रह जाएगा। शायद एक खत की तरह। इमरोज अमृता के जीवन का साया हो गए थे बावजूद इसके कि न कभी अमृता ने और न हीं कभी इमरोज ने एक दूसरे से प्रेम का इजहार किया था। इमरोज अमृता को जगह-जगह स्कूटर पर बैठा कर घूमने ले जाते थे और इस दौरान अमृता लगातार इमरोज की पीठ पर अपनी अंगुलियों से हर्फ दर हर्फ कुछ लिखा करती थीं और इमरोज को ये बात मालूम थी कि पीठ पर बार-बार साहिर लिखा जा रहा होता है। शायद इमरोज ने भी ये मान लिया था कि वो साहिर नाम के आसमान के नीचे बनी छत हैं।

अमृता के जीवन का आखिरी समय बहुत तकलीफ और दर्द में बीता था। बाथरूम में गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी और  उसके बाद मिले दर्द ने उन्हें कभी नहीं छोड़ा। इस दौरान इमरोज ने अमृता की सेवा में खुद को झोंक दिया था न जाने कितने ही काम के ऑफर तक ठुकरा दिए। इमरोज इस दौरान उन्हें नहलाने, कपड़े बदलने से लेकर सब काम में मदद करते थे। वो उनसे बातें करते, उन पर कविताएं लिखते, उनकी पसंद के फूल लाकर देते। 31 अक्टूबर 2005 को अमृता ने आखिरी सांस ली लेकिन इमरोज कहते हैं कि अमृता आज भी उनके साथ हैं, उनके बिल्कुल करीब।

इमरोज कहते थे, "उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में,, कभी किरणों की रोशनी में, कभी ख़्यालों के उजाले में, हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना-अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं...''
आखिर में साहिर की पंक्तियों के साथ अमृता प्रीतम को उनके जन्मदिन पर याद करने के लिए-

'जान-ए-तन्हा पे गुज़र जाएँ हज़ारों सदमे
आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं'
शायद अमृता के लिए ही लिखा गया होगा।

Sunday 17 September 2017


   

कवि  कवियों से ...."एक सफर " 

                                  पीयूष मिश्रा 


 


पीयूष मिश्रा (जन्म १३ जनवरी १९६३) एक भारतीय नाटक अभिनेता, कवि ,संगीत निर्देशक, गायक, गीतकार, पटकथा लेखक हैं। मिश्रा का पालन-पोषण ग्वालियर में हुआ और १९८६ में उन्होंने दिल्ली स्थिति नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने मकबूल, गुलाल, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फ़िल्मों में गाने गाये हैं।
पीयूष  मिश्रा मेरे नज़रिए  में बहुकला और अनेको किरदार को निभाने वाले एक सक्षम व्यक्ति है | उनकी कुछ ही रचनाएँ ऐसी है जो मनुष्यता या सामाजिकता को जोड़ती नज़र आ रही हो अधिकतर उनकी सभी पंक्तियाँ  कही न कही विरोधाभाष ,समाज को कोसती और कई अन्य रूपों में ठरकपन मए लिपटी हुई होती है |

पियूष मिश्रा को समझ पाना इस नासमझ दुनिया के लिए आसान नहीं है | उनकी सभी कविताओं  में एक सच्चाई है जिसकी वजह से कड़वाहट होना भी लाजमी है | स्त्री को लतेडना ,इश्क़ का अनादर ,कही हवस को मोहोबत से तोलना ऐसा आपको उनकी कई कविताओं में  नज़र आएगा | पियूष मिश्रा की माने तो उन्हें काफी लम्बे रसे तक समझ नहीं आया था की वो करना क्या चाहते हैं   ?

कला उनमें  कूट कूट कर भरी थी और जहा भी जिस अलग छेत्र में वो अपनी किस्मत आज़माने जाते वहाँ सफलता उनकी कदम चूमती नज़र आ रही थी |
घर से समय समय पर ज़िम्मेदारी  उठाने की बातें और विवाह के चर्चे उन्हें बांधना चाह रहे होंगे किन्तु जो सभी बंधनो को तोड़ मदमस्त होकर जाता ,लिखता,अभिनय करता वही तो है पियूष मिश्रा|

पियूष मिश्रा के जीवन मए भी एक समय हताशा और निराशा बहुत थी लेकिन ये चेहरा उस हताशा को भी मज़े से चिलम में  भर कर जी रहा था | कभी कही कांच की  शीशी में पानी के दो बूंद डाल  अपने में आज भी जी रहे है | |
थैंक यू साहब…

मुंह से निकला वाह-वाह
वो शेर पढ़ा जो साहब ने
उस डेढ़ फीट की आंत में ले के
ज़हर जो मैंने लिक्खा था…

वो दर्द में पटका परेशान सर
पटिया पे जो मारा था
वो भूख बिलखता किसी रात का
पहर जो मैंने लिक्खा था…

वो अजमल था या वो कसाब
कितनी ही लाशें छोड़ गया
वो किस वहशी भगवान खुदा का
कहर जो मैंने लिक्खा था…

शर्म करो और रहम करो
दिल्ली पेशावर बच्चों की
उन बिलख रही मांओं को रोक
ठहर जो मैंने लिक्खा था…

मैं वाकिफ था इन गलियों से
इन मोड़ खड़े चौराहों से
फिर कैसा लगता अलग-थलग-सा
शहर जो मैंने लिक्खा था…

मैं क्या शायर हूं शेर शाम को
मुरझा के दम तोड़ गया
जो खिला हुआ था ताज़ा दम
दोपहर जो मैंने लिक्खा था…

                             ----पियूष मिश्रा

पियूष मिश्रा की भाषा शैली कभी कभी साहित्यक है और अधिकतर रोज़मर्रा जिसमे कड़ी बोली ,कटु शब्द जो की आज के नवयुग की जीभा पर तान छेड़े होते है उसी का एक रूप है | पियूष मिश्रा जी एक ब्यान करने का अंदाज़ भी बिलकुल उनकी लेखनी की तरह जटपटाता हुआ है | ठहराव और परिवर्तन की उनकी आवाज़ और उनकी लेखनी को कही जरुरत नहीं पडती | पियूष मिश्रा उस युग के शायर है जहाँ शायरी और कविता की परिभाषा में भी मनोरंजन आ गया है |


यह चंद पंक्तिया पर्याप्त है उस गंभीरता को उकेरने के लिए जो महा लेखक पियूष मिश्रा जी कहना चाहते है | मुझे आज तक अपनी विचारधारा  में ये समझ में नहीं आया की पियूष मिश्रा की लेखनी  को वो दूसरा पहलु कैसे मिला जिसमे उन्हें समाज से नफ़रत  है जिसकी वो अवहेलना है वो काली औरत है |
अगर वो"काली औरत" सच है तोह ये " पांच साल की लड़की " क्यों ?

कभी मौका मिला तो खुद भी वार्तालाब करते हुए ये मेरा पहला प्रश्न होगा और इसका जवाब भी तभी मिल पाएगा |


Saturday 16 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

                                                       सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' 


कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "



सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' सिर्फ एक नाम ही नहीं किन्तु समय के साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली  में सभी नव युग को कविताओं से परिचित कराने वाले वो महान इंसान है जिनकी कविताएं  सोचने पर मजबूर कर देती थी |सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म २१ फ़रवरी १८९६ को बंगाल  की रियासत महिषादल (जिला मेदनीपुर)में हुआ | उस दिन बंगाल की कोख  में एक महा लेखक के जन्म का आशीर्वाद हुआ था | उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि २१ फ़रवरी १८९९ अंकित की गई है।वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव के निवासी थे।

पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया।

हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों में  सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी ने अपना नाम बहुत कम समय में शामिल कर लिया  था |

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते है |अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।

1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"

हालांकि सूर्यकान्त  त्रिपाठी "निराला " जी की महान रचनाओं को समझ पाना उनका अध्य्यन  कर पाना हर किसी के बस की बात तो नहीं क्यूंकि उस महान कवि  की महा रचनाएँ अर्श से फर्श तक का सफर तय करती है | कभी-कभी इन्ही कविताओं  का सफ़र किसी की जिंदिगी के लिए प्रेरणा का रूप ले लेता है तो कभी यही रचनाएं  मार्गदर्शक  बनके  भी पाठकों  से जुड़ी  रहती है |

हिंदी और संस्कृत का गहराई से अध्यन  करने की वजह से सूर्यकान्त  त्रिपाठी "निराला" जी का शब्दकोष भिन्न -भिन्न प्रकार से भरा हुआ था | इसका सीधा उदहारण आपको "निराला" जी की कविता संग्रहों मए सीधा देखने को और परखने को मिलेगा | उनका अध्यन कोई बंधा अध्यन नहीं अपितु एक स्वतंत्र अध्यन है जिसमें शब्दों को स्याही  में पिरोकर खाली कागज़ो का सूनापन मिटाने  की उस अध्भुत रूचि को जन्म दिया |


सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित समन्वय का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।


वह आता --
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए |

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। कलम से निकली हर कविता का रस उसका राग आंतरिक भाव एवं बाहरी मुस्कराहट की तरफ करवटें लेते हुए इशारा कर रहे होते है| सभी अलग-अलग लगनेवाले तत्त्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सके | उनका विशेष रूप से चिंतन समाहित रहता था | किसानों  के संदर्भ  में उनका मन ,किसानो की परेशानी को देख वो बहुत चिंतन करते थे | यही वजह है की उनकी कविताओं में  वो चिंतन की रेखाएँ  भी साफ़ साफ़ उकेरती नज़र आती है |

निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताऐं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं। उनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी।


वे किसान की नयी बहू की आँखें 

नहीं जानती जो अपने को खिली हुई--
विश्व-विभव से मिली हुई,--
नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,--
नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को,
वे किसान की नयी बहू की आँखें
ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें;
वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से--
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' एक छायावादी कवि  तो है ही उसके साथ साथ "निराला" अपने शाब्दिक एवं वास्तिविक जीवन में भी एक सरल और सादा  कवि  थे | निराला जी के जन्म से लेकर उनकी अंतिम साँसों की विदाई तक का सफर भले ही अश्रुपूर्ण  रहा हो लेकिन ये उनकी कविताएं ही थी जो उन्हें लड़ना सिखाती है | कभी कभी ये कविताएं  मायूस भी हो जाती है | मायूस  होने का रंग कभी पाढको पर बहुत गहरी छाप छोड़ जाता है और तो और यही वो लेखनी है जो फिर से खड़े होकर सूर्य के तेज़ की तरह चमकने के लिए तैयार करती है | आज सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' भले ही हमारे बीच नहीं हो लेकिन जब कक्षा ७ या ९ का कोई विद्यार्थी काव्य संग्रह को पढता है तोह मानो हर गूंज  में सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" के जीवित होने का प्रमाण खुद व  खुद मिल जाता है |


गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।

---सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ---

कवि कवियों से ... एक सफ़र

              - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

कवि  कवियों से ... एक सफ़र       

कवि कई हुए, 

कुछ के नाम हुए,

कुछ गुमनाम सोए, 

कुछ सोते ही रहे, 

कुछ जागते ही रहे,

कुछ लिखते  ही रहे, 

कुछ सोचते ही रहे 

कुछ बड़े हुए, 

कुछ तो बडकर चल दिए ,

कुछ लिख दिए तो- कुछ उन्हें पढ़कर चल दिए |                                                                          ---@शीष ---

इन्ही में से एक महाकवि है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त(३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के कवि है ।मैं कवियों को मृत इसलिए नहीं समझता हूँ क्योंकी शरीर तो माटी है | आज नहीं तो कल शरीर का त्याग होना ही है लेकिन कवि के बोल उनके शब्द ही उनकी सच्चाई है वो न मृत है  और न मृत होंगे |   

"निज गौरव का नित ज्ञान रहे 

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे

मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे

सब जाय अभी पर मान रहे

कुछ हो न तज़ो निज साधन को न रहो, 

न निराश करो मन को।"              


                      - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ।

माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। वे "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दीबंगलासंस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। 

मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग' तथा बाद में "जयद्रथ वध प्रकाशित हुई। 

उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ "स्वप्नवासवदत्ता" का अनुवाद प्रकाशित कराया। 

१९५४ में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। 

१२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। "भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे।


महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से खड़ी बोली को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। 

पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वधयशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। 

गुप्त जी ने प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया। 

भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है-

भूलोक का गौरव, 

प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?

फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?

संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?

उसका कि जो ऋषि भूमि है,

वह कौन, भारतवर्ष है।

महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अनेकों रचनाओं  से लोगो के मन को जीत लिया था|  वो न केवल उस समय के महाकवि थे बल्कि उसके साथ वो इस दौर के भी लोकप्रिय है | लोगों के करीब शब्दों से जाने की वो कला उनमे भरपूर थी | वे उनके शब्द ही है जो आज भी इस पीढ़ी को सोचने और लिखने पर मजबूर कर देते है | 

"जहाँ न पहुंचे रवी वहाँ  पहुँचे कवि " ये मुहावरा मानो  मैथिलीशरण गुप्त के लिए ही कहा गया हो |महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं से मै खुद भी बहुत प्रेरित हुआ हूँ फिर चाहे वो "दोनों ओर प्रेम पलता है" हो या "अर्जुन की प्रतिज्ञा" किन्तु मुझे उनकी कवितों में हमेशा से एक विरोधाभाष नज़र आया है |

 जो सही भी हो लेकिन "एक तुच्च  लेखक"  के रूप में भी शायद" मै" इस योग्य नहीं किन्तु कैसे रोक पाऊँ ये कहने से शायद समय के साथ शब्दों में वो प्रेम नहीं था | कविताओं का दौर माना आज उतना नहीं है क्यूंकि कविताओं की गहराई नापने वाला शब्दकोष और उन पंक्तियों को समझने वाले श्रोतागण अब न नज़र आते है और न दूर दूर तक सुनाई पड़ते है |

 एक समय था जब कवितायेँ और उनका अस्तित्व देश के गुण गाता था | आज कवितायेँ हास्य तो है किन्तु उनकी भाषाशैली पर आज बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है | इंटरनेट की दुनिया में कविता अभद्रता भी हो चुकी है| न शब्दों का ज्ञान है न उस ज्ञान को प्राप्त करने की रूचि बस दो पंक्तिया यहाँ से और दो किसी और की और नाम की छाप  छापने में सभी माहिर |